इस दिल के कोने में इक आरज़ू थी, इक ख्वाहिश थी और इक कशमकश थी .
आज छम से गिर गयी, मेरी आँखों के दर पर जो एक बूँद बैठी थी.
तुझे गले से लगाने की एक कसक बाकी थी.
तुझे छू भी न पाया, यह चुभन बाकी थी.
तेरे मेरे मिलने की रुत कब आई और कब चली गयी,
धीमी धीमी वो मुस्कान एक क्षण में ही झड़ गयी.
मेरी मजबूरी को मैं जड़ से काट देना चाहता था,
तेरे-मेरे बीच की हर दीवार तोड़ देना चाहता था.
पाँव में चुभे कांटे मैं पीछे छोड़ आया था,
फिर उस मोड़ से गुजरना क्यों मेरी किस्मत में था?
तेरी चाहत जब-जब मेरी रहत को आती थी,
इतना तडपाती थी पर दर्द चूम ले जाती थी.
मेरे प्यार का यह वादा कभी नहीं टूटेगा,
रोया मैं तब-तब तू याद जब-जब आती थी.
Friday, August 13, 2010
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